Saturday, July 9, 2011

गुमसुम सी ज़िन्दगी है

गुमसुम सी ज़िन्दगी है, सहमा सा आदमी है.
सब कुछ है इस शहर में पर प्यार की कमी है.
गैरों से क्या गिला है अपनों से क्या शिकायत,
जब वक़्त बेवफा है, हालात मौसमी है.
कई दिन से उनने घर में माँ-बाप नहीं देखे,
ये फ़र्ज़ पर खुदगर्जी की इक गर्द सी जमी है.
अरसा गुज़र गया है चेहरे की हँसी देखे,
सीरत भी बेमज़ा है, सूरत भी मातमी है.
सहमा हुआ सा उनसे मई बात नहीं करता,
कुछ राज़ खोल देगी, आँखों में जो नमी है.
किस से वयां करून मैं इज़हार-ए-मुहब्बत का,
है भीड़ मैं अकेले, हमराह भी हमीं है.

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