Monday, September 12, 2011


ऐसे गुजारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब।
रह-रह पुकारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
अब दूरियों का दिल पे, बहुत बोझ लग रहा,
बेवश निहारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
दिल मैं हुई है शिरकत, उस अजनबी की जब,
दिल मैं उतारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
सांसों ने उसकी जबसे, मेरे जिस्म को छुआ है,
हर पल संवारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
आँखों में बसी उसकी , सूरत वो सुहानी सी,
अक्सों में निखारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥

डॉ० अनुज भदौरिया

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