Monday, December 12, 2011

कई दिनों से मुझे एक दिन का इंतज़ार है,
रोज आता है पर दिल बेकरार है।
जब माँ के आँचल में बैठा ,
तो सोचा एक दिन
आएगा जब में घुटनों के बल चलूँगा,
पा, मा, दू बोलूँगा।
दिन आया और गुजर गया,
पा को पापा, मा को माँ
तथा दू को दूध बोलने लगा।
सब कुछ बदल गया,
वह दिन नहीं आया
जिसका मुझे इंतज़ार था,
उस दिन के लिए
मेरे मन में सपने बेशुमार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है.......
आज फिर सोचा
जब बगल के
भोलू, जग्गू दादा को
क्रिकेट खेलते देखा।
सोचा न जाने कब बड़ा होऊंगा।
धीरे-धीरे मै
विकेट के पीछे खड़ा होने लगा,
लगने लगा लगा बार जैसे मै बड़ा होने लगा।
वर्णमाला कंठस्थ ,
उच्चारण स्पष्ट
तथा लेखनी स्पष्ट आने लगी,
सब-कुछ सीखता जा रहा था,
शायद संयोग या संस्कार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है....................
आज पहली बार
वार्षिक परिणाम मिला,
तो कार्य और लगन को अंजाम मिला,
सबको दिखाया,
कक्षा में प्रथम आया,
अजीब दिन था वह,
किन्तु यह वो दिन नहीं था।
लगा की जैसे ये क्षणिक बहार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है.............
आज पहली बार
घर से बाहर जा रहा हूँ,
बहुत कुछ ढूढना है
इस सांसारिक समंदर से,
वह दिन जिसका इंतज़ार है वह आएगा,
यह सोच कर ही निकला हूँ,
जब कभी घर में
किसी की याद आती है,
तो एक दिन की प्रतीक्षा ही
भरोसा दिलाती है।
मैं सपनों से नहीं भागता,
बल्कि सपने हकीक़त से भागते है,
और मैं हकीक़त हूँ ऐसा मेरा विचार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है.....................
आज लग रहा है
कि शायद यही वह दिन है,
नौकरी भी लग गयी
और शादी भी हो गयी,
बीवी के साथ खुश हूँ,
किन्तु फिर भी
मुझे एक दिन का इंतज़ार है,
जब एक छोटा सा
प्यारा बच्चा होगा,
वही मेरा सपना और जीवन का आधार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है..........................
आज एक पुत्र भी है
किन्तु वह दिन नहीं आया,
पता नहीं कितनी
गहराइयों में जाकर समाया।
सोच रहा हूँ की एक दिन आये
और लड़का पढ़-लिख कर
नौकरी करने लगे
अपना पेट भरने लगे।
तब अपने बेटे की शादी रचा दूं,
और अपने फ़र्ज़ से मुक्ति पा लूं।
वह दिन आया
और  रुके बिना चला गया,
दादा बनने के सपने
हकीक़त में बदल गए,
चेहरे पर सहस्त्रों बल पड़ गए।
आज जब मैं निष्प्राण होने के करीब था
और जब प्राण गले में आकर फंसा,
तो वही एक दिन मेरी मुर्खता पर
बड़ी जोर से हंसा।
बोला, मुर्ख किसे ढून्ढ रहा है,
जिसे तू ढून्ढ रहा है
वह तुम्हारे साथ जा रहा है,
तेरे इंतज़ार को मिटा रहा है।
तब मैंने सोचा,
शायद यही सच है,
पता नहीं कहाँ अटका था,
शायद कहीं भटका था।
यही दिन तो वो दिन है,
जिसका इंतज़ार है,
अब तक का विस्तार है
और यही सारे जीवन का सार है।
हाँ, मुझे इसी दिन का इंतज़ार है............ हाँ, मुझे इसी दिन का इंतज़ार है..............हाँ, मुझे इसी दिन का इंतज़ार है..
 डॉ० अनुज भदौरिया ' जालौनवी '
१२७०, नया रामनगर, उरई ( जालौन ) उ० प्र०
२८५००१
दूरभाष- ०५१६२-२५५४५१
चल दूरभाष- ०९४१५१६९९३६

Friday, October 7, 2011

सदियों से संहारा रावण,
लेकिन रावण मर न पाया।
हमने पुतले दहन किये है,
अंतस अब तक नहीं जलाया॥
आज हमारे अंतस में,
उस रावण का विश्राम देखिये,
कौन आज अब रावण मारे,
कहाँ आज अब राम देखिये,
मारें अपना अंतस रावण,
जो अब तक यूँ मर न पाया॥
आज जला दो मन के सारे,
रावण, कुम्भकरण, घननाद,
आज मिटा दो मन में सारे,
द्वेष, ईर्ष्या और विषाद,
आज आचमन कर दो उसका,
जो मन अब तक तर न पाया॥
शासन के जो कुम्भकरण हैं,
और समाज के रावण मारो,
जो जीवन को नरक बनाये,
ऐसे सारे कारण मारो,
तुम ऐसा परिवर्तन लाओ,
कोई जो अब तक कर न पाया॥
तभी मानेगा विजय-पर्व यह,
सदियों से जो सँवर न पाया॥

डॉ० अनुज भदौरिया "जालौनवी"

Wednesday, September 28, 2011

मेरी सुन ले तू मनुहार


तू ही जग की पालनहारी,तू ही भाग्य विधाता।
तेरे दर पर आया हूँ मैं, शेरों वाली माता॥
सबके तू भंडार भरे हैं, खाली कोई न जाता।
मैं भी अपनी विनती लेकर, द्वार तुम्हारे आता॥
मेरी सुन ले तू मनुहार,
आया मैया जी के द्वार।
आया मैया जी के द्वार,
कर दे मेरा बेड़ा पार॥
तू ही अम्बे, तू जगदम्बे, तू ही जग कल्याणी,
सबके मन के भाव तू जाने, सबके दिल की वाणी;
तुझसे बड़ा न कोई, तेरी महिमा अपरम्पार॥
एक लाल का सुख-दुःख जग में, माता ने पहचाना,
इस बंधन से नहीं है कोई, बंधन और सुहाना;
आज निभा कर इस बंधन को, कर दे तू उद्धार॥
संकट हरणी, आज हमारे, बिगड़े काज संवारो,
पाप किये जो इस पापी ने, सारे पाप उतारो;
तू जो दया करे तो होगा, माँ मुझ पर उपकार॥
दीन, दुखी, निर्धन और कोढ़ी, द्वार तुम्हारे आये,
जो माँगा सो पाया सबने, खाली हाथ न जाए;
मैं तो मांगूं अपनी माँ से, बस थोडा सा प्यार॥
डॉ० अनुज भदौरिया

Tuesday, September 13, 2011

तुमसे ही शुरू होकर

इक सुबह शुरू होती, इक रात ख़तम होती।
तुमसे ही शुरू होकर हर बात ख़तम होती॥
जुल्फों की अज़ब रंगत, बादल से चुरायी है,
बिखरें तो रोशनी की, बारात ख़तम होती॥
है चाँद भी शर्मिंदा, देखा जो तेरा चेहरा,
तेरे रूबरू तो उसकी, औकात ख़तम होती॥
मिलता हूँ जब भी तुमसे, हर पल हसीन लगता,
आँखों से अश्क-ए-गम की, बरसात ख़तम होती॥
हासिल 'अनुज' हुई है, मंजिल-ए-मुहब्बत की,
अब तो सफ़र की तुमपे, शुरुआत ख़तम होती॥

डॉ० अनुज भदौरिया

Monday, September 12, 2011


ऐसे गुजारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब।
रह-रह पुकारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
अब दूरियों का दिल पे, बहुत बोझ लग रहा,
बेवश निहारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
दिल मैं हुई है शिरकत, उस अजनबी की जब,
दिल मैं उतारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
सांसों ने उसकी जबसे, मेरे जिस्म को छुआ है,
हर पल संवारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥
आँखों में बसी उसकी , सूरत वो सुहानी सी,
अक्सों में निखारता हूँ, मैं ज़िन्दगी को अब॥

डॉ० अनुज भदौरिया

Monday, August 22, 2011

अब जागो ऐ सोने वालो!
ताल ठोंक कर कदम मिला लो॥
बहुत हो चुकी नींद तुम्हारी,
रातें ढली सभी अंधियारी;
अब जागो ऐ वीर सपूतो,
देश तके उम्मीद तुम्हारी;
किस मादकता में डूबे हो,
सोचो,समझो, होश संभालो।।अब जागो ऐ सोने वालो!
अब सोये तो सुबह न होगी,
जगने की फिर वजह न होगी;
वतन सुलगता रहा अगर तो,
अमन-चैन की जगह न होगी;
मुश्किल में हालात देश के ,
आओ मिल सब इसे बचा लो॥ अब जागो ऐ सोने वालो!
क्या हिन्दू? क्या मुस्लिम भाई ?
क्या सिख या कोई ईसाई?
साथ चले जब एक राह पर,
सबने मिलकर मंजिल पायी;
किस उलझन में दूर खड़े हो,
राग-द्वेष सब आज मिटा लो॥ अब जागो ऐ सोने वालो!
एक वृद्ध जब चला अकेला,
जन-समूह का आया रेला;
धीरे-धीरे पंक्ति बनी इक,
आज पंक्ति से बना है मेला;
आज दिखा दो ताकत अपनी,
एक तमाशा तुम कर डालो॥ अब जागो ऐ सोने वालो!
व्यर्थ नहीं होती कुर्वानी,
रोज नहीं आती है जवानी;
अगर राष्ट्र-हित खून न खौला,
खून नहीं, वो होता पानी;
कभी देश की खातिर मिलती,
मौत अगर तो गले लगा लो॥ अब जागो ऐ सोने वालो!
मिल कर भ्रष्टाचार मिटा दो,
कुटिल नीतियां यार मिटा दो;
गर विरोध में आये सामने,
तो सब मिल सरकार मिटा दो;
अखंड देश का गौरव जिसमें,
ऐसा सुन्दर देश सजा लो॥ अब जागो ऐ सोने वालो!

 डॉ० अनुज भदौरिया ' जालौनवी '
१२७०, नया रामनगर, उरई ( जालौन ) उ० प्र०
२८५००१
दूरभाष- ०५१६२-२५५४५१
चल दूरभाष- ०९४१५१६९९३६



Sunday, August 14, 2011

Saturday, August 13, 2011

कोई जब दिलनशीन लगता है।


कोई जब दिलनशीन लगता है।
सारा आलम हसीन लगता है॥

उसकी सांसों से मैं महकता हूँ,
जिस्म ताज़ातरीन लगता है॥

उसकी हर-एक अदा का कायल हूँ,
मुझको वो नाजनीन लगता है॥

उसका अहसास जब भी छूता है,
ज़िन्दगी पर यकीन लगता है॥


डॉ० अनुज भदौरिया

Monday, August 8, 2011

Sunday, August 7, 2011

Wednesday, August 3, 2011

मेरी कश्ती

क्या-क्या सितम

क्या-क्या सितम ज़माने के हँसकर गुजरता।
किस्मत की इक लकीर को लिखता-मिटारता॥
ख्वाबों के घरोंदों की अजाब खासियत है ये ,
हर रोज़ उन्हें नीद से जगकर निखरता॥
यादों की लकीरों से कोई अक्स बन गया,
उसको कभी रोकर कभी हँसकर संवारता।।
हर दर्द मुनासिब है मुझे प्यार के लिए,
सीने में हर-एक दर्द को छिपाकर उतारता॥
उल्फत का रंग खून-ए-जिगर से मिला 'अनुज',
अब ज़िन्दगी की राहें रह-रहकर निहारता॥

मैं हवाओं का रुख बदल देता।

मैं हवाओं का रुख बदल देता।
वो अगर साथ मेरे चल देता॥
मेरी इतनी सी खता उसको हमराह चुना,
हाथ को थमने का न कोई शगल देता।
हुस्न पर नाज़ उसे दिल पे मुझे नाज़ रहा,
या खुदा दिल उसे मुझको तू शकल देता।
मेरे अल्फाज़ मेरे सारे तराने होते,
वो अगर पास मैं होता तो मैं ग़ज़ल देता।
उसकी हर याद मेरे दिल को तसल्ली देती,
जुस्तुजू थी कोई दिल मैं मेरे हलचल देता।

Monday, July 18, 2011

इक प्रात होगी.


नव दिवाकर, नव किरण संग,
कल नयी इक प्रात होगी.
कुछ नयापन सा समेटे,
कल नयी इक बात होगी.
प्रात उगना सूर्य का
नित डूब जाना साँझ ढलते ;
क्या कभी देखा किसी ने,
बेवसी में हाथ मलते ;
है पता उसको नियति का,
बाद उसके रात होगी.
कुछ नयापन सा समेटे,
कल नयी इक बात होगी.
रात-दिन, सुख-दुःख सरीखे,
रोज आते रोज जाते;
हम न जाने क्यों उन्ही को,
सोचकर के छटपटाते ;
आज गम है, कल ख़ुशी की,
देखिये बरसात होंगी .
कुछ नयापन सा समेटे,
कल नयी इक बात होगी.
चल रही तो ज़िन्दगी,
रुक जाएगी तो मौत है ;
उलझनें, हैरानियाँ तो,
ज़िन्दगी की सौत है ;
हर समय विश्वास से चल,
मंजिलें फिर साथ होंगी.
कुछ नयापन सा समेटे,
कल नयी इक बात होगी.

Thursday, July 14, 2011

कभी प्यार सजाकर देखो.

अपनी आँखों में कभी प्यार सजाकर देखो.
कैसे लगते हो कभी बज़्म में आकर देखो.
मेरे हाथों की लकीरों में भला क्या दिखता है,
हाल-ए-दिल ढूँढना हैं तो दिल में समाकर देखो.
कौन कहता है कि मैं आपसे महफूज़ नहीं,
दिल में यादों कि शमां फिर से जलाकर देखो.
इतना आसन नहीं गम को छिपाकर हँसना,
साथ मेरे कभी यूँ आप भी मुस्कराकर देखो.
दर्द खुद-ब-खुद ग़ज़ल की बंदिश हैं,
आप कोई भी ग़ज़ल आज सुनाकर देखो.
मेरी आवाज़ की लर्जिश का सबब प्यार नहीं,
शाम-ए-गम तुम कभी पैमाना उठाकर देखो.
कौन दौलत है ज़माने में मुहब्बत से बड़ी,
प्यार से प्यार में तुम प्यार लुटाकर देखो.
देखने वालों ने क्या खूब तमाशे देखे,
लोग तूफ़ान उठा देंगे साथ आकर देखो.
मर भी जाऊंगा कहीं याद में तेरी ये 'अनुज',
लौट आऊंगा, कभी प्यार से बुलाकर देखो.

 डॉ० अनुज भदौरिया "जालौनवी"

Sunday, July 10, 2011

बुन्देली पावस गीत

कैसो झम-झम बरसो पानी,

सूनी धरती लगे भरी.

सूनी धरती लगे भरी की,

सूखी धरती लगे हरी. कैसो बरसो..............

गर्र-गर्र बदरा गर्जत है,

बिजरी भई दीवानी,

आस-पास सब लगे समुन्दर,

भरो खुपडियन पानी,

गिर गयी भीत बगल बालेन की,

उनने जो परसाल धरी. कैसो बरसो ...............

झींगुर झांझ बजावैं

दादुर अपनों राग अलापें ,

बचे-कुचे मैं कुटकी-मछरा

हेमोग्लोबिन नापें,

बिजरी बालेन की बेईमानी,

अबकी साल बड़ी अखरी. कैसो बरसो.........................

भोलू-छोटू सीख रहे है

अंगना मैं तैराकी,

बैठ बरोठे हेर रही है

उनकों बूड़ी काकी,

बाकी सब मिल साथ चलायें

देखो नाव भरी बखरी. कैसो बरसो...............

Saturday, July 9, 2011

गुमसुम सी ज़िन्दगी है

गुमसुम सी ज़िन्दगी है, सहमा सा आदमी है.
सब कुछ है इस शहर में पर प्यार की कमी है.
गैरों से क्या गिला है अपनों से क्या शिकायत,
जब वक़्त बेवफा है, हालात मौसमी है.
कई दिन से उनने घर में माँ-बाप नहीं देखे,
ये फ़र्ज़ पर खुदगर्जी की इक गर्द सी जमी है.
अरसा गुज़र गया है चेहरे की हँसी देखे,
सीरत भी बेमज़ा है, सूरत भी मातमी है.
सहमा हुआ सा उनसे मई बात नहीं करता,
कुछ राज़ खोल देगी, आँखों में जो नमी है.
किस से वयां करून मैं इज़हार-ए-मुहब्बत का,
है भीड़ मैं अकेले, हमराह भी हमीं है.
मेरे दीवानेपन को लोग, पागलपन समझ बैठे.
मगर पागल भी थे कुछ जो दीवानापन समझ बैठे.
भला क्या आपने समझा हमारे प्यार का मतलब?
इसे हम दोस्तों सच मानिये जीवन समझ बैठे.
जिन्हें ये बोझ लगते कभी अहसास-ए-उल्फत के,
वही शायद मुहब्बत को कोई उलझन समझ बैठे.
जो बैठे है तुम्हारी जुस्तुजू में रह ताकने हम,
मुझे वख्शीश देकर के भिकरिपन समझ बैठे.
में पागल हूँ, दीवाना हूँ, में जो भी हूँ तुम्हारा हूँ,
मुझे उनसे है क्या लेना जो आवारापन समझ बैठे.
चलो इक बार फिर से प्यार में हम डूब कर देखें,
लगेगी ज़िन्दगी गुलशन जो सूनापन समझ बैठे.
में मुहफट था जो हर इक बात को यूँ बोल देता था,
'अनुज' की साफगोई को गवारापन समझ बैठे.

Thursday, July 7, 2011

कलमकार नहीं.

यूँ ही लिख लेता हूँ कलमकार नहीं.
दिल का मारा हूँ फनकार नहीं.
दर्द सीने मैं दफ़न रखता हूँ,
हँस जो लेता तो गुनाहगार नहीं.
मेरे अहसास की ना कीमत करना,
दिल का मालिक हूँ, बाजार नहीं.
तेरी यादों के मेरी आँखों मैं जुगनू है,
नींद से बोल दियातेरा तलबगार नहीं.
है मयस्सर किसे अहसास-ए-वफ़ा यारो,
वक्त भी आजकल शायद वफादार नहीं.
मैंने जो चाहा किया, कोई अफ़सोस नहीं,
मैं शहंशाह हूँ, सिपहसलार नहीं.
सबकी आँखों मैं बेबसी दिखती,
किसको गम अपना कहूं, मददगार नहीं.
आजकल हर कोई दीवाना लगे,
लैब पे अलफ़ाज़ है पर प्यार नहीं.
मेरे घर से उजाले डरते 'अनुज',
उनको मालूम यहाँ त्यौहार नहीं।

Sunday, June 19, 2011

तू है

तू है मेरे मन की मैना, मै हूँ काक सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा ।।
तू है गंगा जैसी पावन,
में हूँ गटर सरीखा,
तू अरहर की दाल सी मंहगी,
मैं हूँ मटर सरीखा;
तू चन्दन की पावन ज्वाला, मैं कंडा-राख सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा । ।
तेरी धवलता सर्फ़ एक्सेल,
मैं विम बार सरीखा;
मर्सडीज़ सी तू कम्फर्टेबल,
मैं खटरा कार सरीखा;
नाक तेरी तोते के जैसी, मैं सूकर नाक सरीखा ।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा । ।
तू जैसे शेयर मार्केट है,
मैं सब्जी मण्डी हूँ;
एक हाईवे के जैसी तू,
मैं कोई पगडण्डी हूँ;
तेरा घूर्णन मिक्सी जैसा, मैं हूँ चाक सरीखा ।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा। ।
तू बोतल कोका-कोला की,
मै उसका ढक्कन हूँ,
तू अमूल का देसी घी,
मैं देहाती मक्खन हूँ;
तू इ-मेल नेट का कोई, मै खालिस डाक सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा । ।
तू है मेल शताब्दी जैसी,
मैं कोई पसेंजर,
तू हरियाली है बागों की,
मैं जमीन हूँ बंजर;
तू हिन्दुस्तानी सहनशीलता, मैं हूँ पाक सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा। ।
ताजमहल सी तू सुन्दर हैं,
मैं इक ध्वस्त किला हूँ;
तू लखनऊ की शान निराली,
मैं जालौन जिला हूँ;
हरा-भरा तू पेड़ घनेरा, मैं सूखी शाख सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा। ।
तू गुलाब का फूल महकता,
मैं हूँ फूल धतूरा;
तू मधुबाला सी सुन्दर है,
मैं हूँ निपट लंगूरा;
तू सोने सी वेशकीमती, मैं हूँ ख़ाक सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा। ।
डी.टी. एच.सी तेरी सर्विस,
मैं टूटा एंटीना;
तू सर्दी की धुप सुहानी,
मैं हूँ जेठ महीना;
ध्रुव प्रदेश का तू है भालू, मैं हूँ याक सरीखा।
तू कोई कचनार फूलती, मैं हूँ ढाक सरीखा। ।

तुम

तुम मेरे आस-पास रहते हो,
जाने क्यों फिर उदास रहते हो;
एक उम्मीद-ए-वफ़ा जान-ए-मुहब्बत होती,
जान कर भी बे-आस रहते हो;
जब भी तुमसे मैं जुदा होता हूँ ,
लम्हा-लम्हा मेरी तलाश रहते हो;
तेरी बातों मैं कोई शहद सा घुलता,
दिल मैं बन के मिठास रहते हो;

प्यार

ढेरों प्यार मुफ्त मिलता था
बचपन था ये बात पुरानी।
चोरी कर यौवन में पाया ,
ये भी अब बन गयी कहानी॥
आज मांगने पर भी हमको,
कोई प्यार नहीं देता है।
हाय बुढ़ापा! इसीलिए तो,
ढली उम्र में दुःख देता है॥

डॉ अनुज भदौरिया



Saturday, June 18, 2011

जीवन

उलझनें-हैरानियाँ, जीवन नहीं है
ये सोचना नादानियाँ, जीवन नहीं है
क्या मिला क्या खो गया,
किस बात का अफ़सोस तुमको ?
जो मिला वो है तुम्हारा,
जो हो गया संतोष तुमको ;
भाग्य की बेईमानियाँ जीवन नहीं है
ये सोचना नादानियां जीवन नहीं है
क्या गलत है क्या सही है ?
समय का है चक्र देखों ;
तुमने जिस पल को जिया है,
करो उस पर फक्र देखो ;
वक़्त की शैतानियाँ जीवन नहीं है
ये सोचना नादानियाँ जीवन नहीं है
तुम अकेले थे कहाँ ?
इस जन्म से अवसान तक ;
सैकड़ों की भीड़ लेकर,
जाओगे शमशान तक ;
वाद की वीरानियाँ जीवन नहीं है
ये सोचना नादानियाँ जीवन नहीं है
हर किसी का मोल करना,
ज़िन्दगी या हाट है ?
क्या खरीदोगे, सभी कुछ
यहाँ बंदरबांट है;
लाभ है या हानियाँ जीवन नहीं है
ये सोचना नादानियाँ जीवन नहीं है

सरस्वती वंदना